Menu
blogid : 6653 postid : 40

विज्ञान का आश्चर्य-संसार का अजूबा- अक्षयवट

संसद या सासत
संसद या सासत
  • 14 Posts
  • 56 Comments

यहि तन गुरु उरिन मै नाही.

समस्त पाप नसावन, मनभावन, पतित पावन परम पिता परमेश्वर क़ी अनुपम कृति स्वरुप “श्री अक्षयवट” का गुण गान कर आज मैं निश्चित रूप से धन्य हो रहा हूँ. यद्यपि यह अवसर मुझे मेरी भाग्य क़ी प्रबलता से ही सुलभ हो सका है. किन्तु माध्यम या कारण स्वरुप देश भक्त, परम विद्वान, अस्त्र-शस्त्र के साथ ज्योतिष के दोनों रूप गणित एवं फलित के उद्भट विद्वान पण्डित श्री आर. के. राय जी क़ी कृपा प्रसाद से ही संभव हो सका है.
प्रयाग नगरी जिसका नाम ही प्रातः स्मरण करने से समस्त दिन शुभ व्यतीत होता है, ऐसे पावन भूमि पर अलकनंदा, भागीरथी एवं गंगा आदि नामो से जानी जाने वाली देवनदी, सूर्य-संज्ञा से जन्म प्राप्त यमुना एवं ब्रह्मा के पवित्र यज्ञ क़ी रक्षा हेतु धरा पर अवतरित सरस्वती क़ी त्रिवेणी पर स्थित यह महान गौरव शाली वृक्ष अपनी अद्भुत विलक्षणता के कारण निःसंदेह दर्शनीय है.
मै एक अति ज़टिल व्याधि से ग्रसित था. लगभग भारत के सभी चिकित्सालय से दवा कराया. कोई लाभ नहीं हुआ. मेरी सामर्थ्य तों नहीं थी. किन्तु किसी तरह मांट्रियाल (अमेरिका) स्थित एलो-मार्था चिकित्सालय से भी दवा कराया. किन्तु निराशा ही हाथ लगी. अभी मै यह प्रतीक्षा करने लगा कि वह आखिरी घड़ी कब आती है जब मै चिरनिद्रा में तल्लीन हो जाऊं. इधर मेरी श्रीमती जी ने अब दुवा क़ी तरफ ध्यान लगाया. जयपुर से लेकर वाराणसी तक का कई बार चक्कर लगाया. पण्डित समुदाय ने मुझे किस तरह त्रासदी दी, किस तरह चूसा और कितना दौडाया, इसका बखान मै नहीं करना चाहता. और अब मै इधर से भी पूर्णतया आश्वस्त होकर बैठ गया. इसी मध्य अपने दुःख को भुलाने के लिये इस जागरण मंच पर अपने दिल क़ी भड़ास निकालने तथा समय व्यतीत करने के लिये कुछ लिखने पढ़ने का मन बनाया. दो तीन ब्लॉग भी लिखा. तभी मुझे एक विद्वान् ज्योतिषाचार्य जिन्हें आज मैं पूजता हूँ, पण्डित आर. के. राय के ज्योतिषीय लेख दृष्टि गत हुए. इनके लेख कुछ अजीब तरह के लगे. मैंने अपने एकाध परिचितों से इसके बारे में बताया. इसमें दो तीन इन्हें बहुत अच्छी तरह से जानते है. मै उनका नामोल्लेख कर इस लेख का आकार बढ़ाना नहीं चाहता. उन लोगो ने मुझे पण्डित जी से संपर्क करने क़ी सलाह दी. मुझे बहुत ही झिझक हो रही थी. कारण यह कि मैं पहले ही बहुत कुछ-रुपया, समय एवं सेहत खो चुका था. इसके अलावा बहुत बड़े बड़े पण्डित बहुत ही ख्याति लब्ध ज्योतिषी आदि से संपर्क एवं उनका कहना कर चुका था. और उसका परिणाम भी देख चुका था. तों इस खुर्राट दिमाग वाले फौजी से संपर्क बनाना मुझे रास नहीं आ रहा था. तभी स्टेट बैंक आफ इंडिया के उत्तर प्रदेश राज्य के महा प्रबंधक श्री सी. रामाराव जो मेरे साथ काम कर चुके थे, और पण्डित जी को बहुत अच्छी तरह जानते थे, उन्होंने मुझे पण्डित जी से मिलने क़ी सलाह दी. चूंकि मेरा कोई पूर्व परिचय नहीं था. अतः मैंने उनसे ही प्रार्थना किया कि मेरे लिये उनके पास चलें. उन्होंने मान लिया. फिर पण्डित जी को फोन किया. किन्तु उस समय पण्डित जी कही गये हुए थे. फिर उन्होंने ही मेरा फोन पर उनसे परिचय कराया. मैंने उनसे मिलने क़ी इच्छा ज़ाहिर क़ी. उन्होंने हामी भर ली. और मै इलाहाबाद पहुँच गया.
जैसा कि मुझे ज्ञात था, पण्डित जी एक फौजी है. मै उनके बताये निर्देश के मुताबिक इलाहाबाद के उस किले के प्रधान गेट पर पहुंचा. जिसके अन्दर सेना रहती है. वहां पर खड़े संतरी बहुत ज्यादा छान बीन करने लगे. और अंत में मुझे अन्दर जाने से मना कर दिया. मै सही बताऊँ, पण्डित जी के यहाँ पहुँचना एक बहुत कठिन काम लगा. किन्तु अपनी पीड़ा मैं स्वयं ही जानता था. अतः हार नहीं माना. अस्तु जैसे तैसे मैं पण्डित जी के यहाँ पहुंचा. मै सोचा था, पण्डित जी एक बहुत बड़े आदमी होगें. उनका रहन सहन बहुत ही उच्च स्तर का होगा. मै कैसे मिलूंगा? आदि. किन्तु जैसा मै सोच रखा था, सब कुछ उसके विपरीत निकला. जो स्नेह, सम्मान एवं प्रेम मिला, उसे शब्दों में कहना मुझे उचित नहीं लगता.
अस्तु, पण्डित जी ने जैसे तैसे कर के अक्षयवट दर्शन का पास बनवाया. वास्तव में यह वृक्ष सेना क़ी सघन अभिरक्षा में सुरक्षित है. और इसीलिए अभी आज तक यह खडा है. यहाँ जाने के लिये कई सुरक्षा चक्रों से होकर गुजरना पड़ता है.
इलाहाबाद में यह अकबर का बनवाया किला है. तीन तरफ से भारत क़ी दो प्रधान नदियों क़ी गहरी धारा से घिरा है. तथा एक तरफ से भयंकर गहरी खाईयों से घिरा है. अकबर ने जब देखा कि इस प्रांत में शासन करना है तों हिन्दुओं से विरोध कर के असंभव है. अतः उसने महाराणा प्रताप के भाई महाराजा मान सिंह क़ी बहन जोधाबाई से निकाह कर लिया. और किले का निर्माण करवाना शुरू किया. क्योकि बिना ऐसे किये उस स्थान पर जो ऋषियों क़ी तपस्थली थी, वहां पर किला बनवाना सर्वथा असंभव था. किले क़ी दिवार क़ी सीध में ही पुराण प्रसिद्ध बड़े हनुमान जी का स्थान था. वह किले क़ी दीवार के बीच में ही पड़ता था. अकबर ने पंडितो से कहा कि हनुमान जी क़ी स्थापना किसी अन्य अच्छी जगह पर कर दीजिये. क्योकि किले क़ी दीवार बनवानी है. पण्डित जी लोग देखे कि नहीं मानने पर वह ज़बरदस्ती उसे हटवा देगा. और मूर्ति खंडित हो सकती है. अतः वे मान गये. अब हनुमान जी क़ी मूर्ति का आधार खोदा जाने लगा. जब उसे उठाया जाने लगा तों वह विशाल काय मूर्ति नीची धसती चली गयी. यह सूचना अक़बर के पास पहुँची. उसने अपने विश्वस्त सैनिक एवं विशाल काय गजराजो को उस मूर्ति को उठाने के लिये लगाया. किन्तु ज्यो ज्यो कोशिस क़ी गयी, वह मूर्ति नीची धसती चली गयी. अब अक़बर किसी अनहोनी क़ी आशंका से भयभीत हो गया. उसने काम रुकवा दिया. तथा आदेश दिया कि किले क़ी दीवार को टेढ़ी कर दो. और उस स्थान से किले क़ी दीवार टेढ़ी कर दी गयी. यही एक मात्र लेटे हुए हनुमान जी है जो धरती पर शयना वस्था में विराज मान है. कहते है कि किसी तरह का भूत-प्रेत, पिशाच, नज़र-गुज़र आदि का दोष मात्र इनके दर्शन से ही दूर हो जाता है. इसकी भी कथा बहुत विचित्र एवं रोचक है. यदि ईश्वर क़ी कृपा रही और आप लोगो का स्नेह रहा तों इसका भी वर्णन आप लोगो को प्रस्तुत करूंगा.
इस प्रयाग राज में हनुमान जी क़ी कृपा एवं पावन अक्षयवट के पवित्र सान्निध्य से अखंड शासन करने के लिये अक़बर ने एक नया धर्म प्रयाग में चलाया. उस धर्म का नाम उसने दीन-ए-इलाही रखा. इस प्रकार यह इलाही धर्म जहाँ पर आबाद हुआ वह इलाहाबाद हो गया. और तब से यह इलाहाबाद कहलाने लगा.
किले में प्रवेश के लिये सुरक्षा पास क़ी आवश्यकता पड़ती है. इसके दो गेट है. वैसे तों इसके पांच गेट है. जिनका नाम अकबर क़ी पांचो बीबियो के नाम पर रखा गया था. ये पांचो बीबियाँ पांच धर्मो से थीं. उनको पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी. वे सब अपने अपने हिसाब से अपने अपने धर्मो का पालन करने के लिये स्वतंत्र थीं. इनमें प्रधान जो आज भी विराज मान है, उनका नाम जोधाबाई द्वार एवं रोशन आरा गेट है. शेष तीन गेट सुरक्षा एवं प्रबल बाढ़ विभीषिका क़ी दृष्टि से बन्द कर दिये गये है. अब आज ये द्वार भी बाहरी चहार दिवारी से घेर दिये गये है. इसके दो प्रधान द्वार है. एक का नाम सरस्वती गेट तथा दूसरे का नाम संगम गेट है. दोनों ही गेट से अन्दर प्रवेश किया जा सकता है. सरस्वती गेट में घुसने से पहले प्रसिद्ध मन कामेश्वर मंदिर पड़ता है. इसकी भी कथा बड़ी विचित्र है. समयानुसार इसका भी वर्णन आप को दूंगा. जो गेट संगम के रास्ते पर खुलता है, उसे संगम गेट के नाम से जाना जाता है. उसके बाद अन्दर घुसने पर प्रधान किले के अन्दर प्रवेश मिलता है जो बड़ी गहरी एवं भयानक खाईयों से घिरा है.इन खाइयों के ऊपर चारो तरफ गहरा घना जंगल है. किन्तु सेना के स्वभाव के अनुरूप साफ़ सुथरा एव अनुशासित तरीके से सजा है. इसमें बड़े बड़े अज़गर के अलावा मोर एवं हिरन आदि रहते है. किन्तु इससे अलग का क्षेत्र बिल्कुल साफ़ सुथरा है. जिससे इन जानवरों से कोई भय नहीं है. मोर बहुतायत में पाये जाते है. वहां पर भी सेना के जवान बड़ी ही मुस्तैदी से खड़े रहते है. पहले सुरंग गेट से प्रवेश करते ही सम्राट अशोक के कीर्ति स्तम्भ का दर्शन होता है. यह मूल रूप में एक सौ चौवन फूट ऊंचा था. इसे गया (बिहार) से अकबर ने मंगवाया था. किन्तु अब यह ज्यादा टूट गया है. इस पर विविध लिपियों-ब्राह्मी, खरोष्ठी, देवनागरी आदि में विविध राजाओं के कार्यकाल का मुख्य अंश लिखा गया है. वहां से आगे बढ़ने पर अति सुरक्षित क्षेत्र सैन्य आधार कार्य शाला के परिसर में प्रवेश करना पड़ता है. और असली किले का दृष्य उपस्थित होता है. बड़ी ऊंची ऊंची दीवारें जो लगभग दश दश फुट लम्बी शिलाओं को एक पर एक रख कर निर्मित किया गया है, अपनी भव्यता को दर्शाती है. आज इतने सौ साल बीत जाने पर भी लगता है बिल्कुल नयी बनी है. यद्यपि उन पर सीमेंट या चूना-गेरू आदि का कोई लेप नहीं चढ़ा है. किन्तु बिल्कुल ताजा तरीन लगती है. आगे एक और सुरंग गेट से गुजरना पड़ता है. और वहां से शुरू होता है सेना का अति संवेदन शील क्षेत्र. यहाँ पर गहन परिक्षण होता है. कोई कमरा, मोबाइल आदि अन्दर ले जाना वर्जित है.
यही पर गेट के ही पास रंग महल नाम का एक भवन है. यह अकबर का विलास महल था. यही पर वह अपनी रानियों के साथ मनोरंजन किया करता था. यह एक तरह का तिमंजिला भवन है. किन्तु बाहर से देखने पर कोई नहीं कह सकता है कि यह दो मंजिला भी होगा. इसकी दीवारों पर उकेरी गयीं चित्रकारी एक अद्वितीय दृष्य उपस्थित करती है. इसके सारे कमरे एक समान है. यह एक तरह का भूल भुलैया है. अन्दर घुस जाने क बाद बाहर निकलने में परेशानी हो जाती है. आगे गेट से अन्दर चल कर फिर नीचे उतरना पड़ता है. लगभग पचासों सीढियां नीचे उतरना पड़ता है. और फिर एक लम्बी सुरंग से होकर गुज़रना पड़ता है. और तब पाँव सतह पर आते है. तभी एक सत्य उजागर होता है.
वास्तव में यह स्थान तपस्वीयो क़ी तपो भूमि थी. मुग़ल शासक अकबर ने सर्वप्रथम हिंदुत्व को ध्वस्त करने का काम शुरू किया था. उसने सारे आश्रमों को ध्वस्त कर उसके ऊपर अपना किला खडा कर दिया. थोड़ी से ज़मीन शेष रह गयी थी. जो अभी आज भी विराज मान है, यह बहुत नीचे है. संभवतः यह महर्षि कश्यप का आश्रम था. किन्तु इसके बारे में कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता है. इसे पाताल पुरी मंदिर के नाम से जाना जाता है. यही यह प्रमाणित हो जाता है कि ढेर सारे आश्रमों को ध्वस्त कर उसके ऊपर किले का निर्माण कराया गया. और यह और ज्यादा पुख्ता हो जाता है जब सीढियों के सहारे नीचे उतरते हुए हम नीचे पवित्र अक्षयवट क़ी तरफ बढ़ते है. क्योकि यह किले के सतह से बहुत नीचे है. जब हम इस लम्बे सुरंग से गुज़रते हुए बाहर निकलते है. तों सामने ही जोधाबाई द्वार पड़ता है. यह यमुना नदी में खुलता है. यही पर जोधाबाई स्नान आदि कर के पवित्र अक्षयवट का पूजन अर्चन करती थी.
पत्थर के टाइल्स लगे मार्ग पर जब हम किले क़ी दीवार से सटे आगे बढ़ते है तों सामने ही मज़बूत चहार दिवारी पड़ती है. इसकी नींव यमुना नदी में अन्दर तक समाई हुई है. बड़ी विचित्र बात है कि इतने सौ वर्ष बाद भी सतत पानी में रहने एवं अनेक बाढ़ बिभीशिकाओं के थपेड़े खाने के बाद भी यह दीवार उसी तरह खड़ी है. पता नहीं किस सीमेंट क़ी चिनाई क़ी गयी है. आज जब विज्ञान इतनी उन्नति कर चुका है, तब भी वैसा सीमेंट नहीं बन पाया है. अब तों चालीस साल बीतते बीतते सीमेंट झड जाता है. तथा दीवार नेस्तनाबूद हो जाती है.
और फिर दिखाई देता है पवित्र अक्षय वट. उसके पहले घेरे के बाहर ही एक छोटा सा बोर्ड लगा है. जिस पर लिखा है कि भगवान राम अपने वनवास के दौरान यहाँ पर टिके थे. तथा उन्होंने ही वरदान दिया था कि यह वट वृक्ष अक्षय वट हो जाय. वहां पर यह भी लिखा है कि गलत मान्यताओं के चलते अंध विश्वासी हिन्दू मतानुयायी इस वृक्ष पर चढ़ कर यमुना में छलांग लगाते थे. ताकि उन्हें स्वर्ग मिल जाएगा. किन्तु यह सेना क़ी धार्मिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए लिखा गया है. वास्तविकता यह है कि प्रचंड मुग़ल शासक औरंगजेब मुख्य हिन्दू मतावलंबियो को पकड़ कर यहाँ मंगवाता था. तथा ज़बरदस्ती उसी वृक्ष से नीचे फेंकवा देता था. तथा घोषणा करवा देता था कि वह अपनी इच्छा से स्वर्ग पाने के लिये छलांग लगाया है.
इस प्रकार हम उसे पढ़ते हुए आगे बढ़ते है. तथा फिर पहुँचते है उस अजर अमर परम पवित्र पतित पावन त्रय ताप नसावन जगत प्रसिद्ध परमेश्वर के अनमोल उपहार स्वरुप अक्षयवट क़ी शीतल छाँव में. पहले ही दृष्टि में आँखें उस वृक्ष पर जो एक बार पड़ गयी तों फिर उसी में अटक जाती है. उसके नीचे जाते ही लगता है जैसे हम किसी दूसरी दुनिया में पहुँच गये है. एक अलग किस्म क़ी प्रेरणा, अनुभूति एवं सुख का भाव प्राप्त होता है. लगता है जैसे सारे दुःख एवं भय पलायित हो गये. एक पूर्ण आयाम, निश्छल आनंद, समस्त मोह माया से दूर कोई चिंता नहीं. कोई बंधन नहीं. एक अद्वितीय अनुभूति.
पता नहीं क्यों मेरे आँखों से आंसू निकल पड़े-शायाद ये आंसू बेबसी के थे. कारण यह था कि वही पर भारत क़ी राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल आई थीं. शायद उनकी कोई मन्नत थी. और पूरी होने पर वह पुनः दर्शन के लिये आई थीं. और मैं वही पर था. तब तक इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रिबेलो भी पहुंचे. मेरी समझ से आंसू इसलिए निकल पड़े कि इन सबके दुःख दूर हो गये. क्या मैं ही इस संसार का सबसे बड़ा अभागा हूँ जिसका दुःख अब दूर होना असंभव हो गया है. संभवतः इसीलिए आंसू निकल पड़े.
खैर जो भी हो, मै उस वृक्ष क़ी छाया में बैठ गया. वही बरगद का वृक्ष, दो तरफ से विस्तार प्राप्त. पूर्वी हिस्सा यमुना जी में लटका हुआ. उसके पत्ती एवं जटायें यमुना जल को स्पर्श कर उसकी गन्दगी या पाप को शुद्ध करते हुए गंगाजी में मिलाने के योग्य बना रही है. दक्षिणी हिस्से में विस्तार को प्राप्त यह विशालकाय वृक्ष आगे भी यमुना जी में ही झुकता चला जा रहा है. ऐसा लगता है इसे यमुना जल को ही शुद्ध करने का निर्णय लिया है. क्योकि अन्य दिशाओं में इसका कोई विस्तार नहीं है. इसके तीन हिस्से देखे जा सकते है. इसके पत्ते अन्य बरगद के पत्तो से सर्वथा अलग है. इसके पत्ते चिकने, मुलायम एवं एवं एक अलग आकार-प्रकार के है. इसकी लटकती जटायें सामान्य बरगद की जटाओं से भिन्न है. इसमें कुछ पत्ते विशेष है जिनकी महत्ता विशेष है. जो मुझे बाद में पता चला. इसका पूर्वी हिस्सा सीधे ऊपर की तरफ बढ़ता हुआ. पश्चिमी हिस्सा लगातार यमुना जी को आच्छादित करता हुआ. समस्त आतप एवं झोंके सह कर प्राणी समुदाय को सुख देने के के लिए कृत संकल्प.
मेरा सारा दुःख भाग गया. अभी मै खुश था. बिल्कुल खुश.मुझे ऐसा लग रहा था जैसे कोई अदृष्य शक्ति अपनी तरफ खींच रही हो. मैंने आँखें बन्द कर लीं. तभी अचानक मेरी आँखें खुली. क्योकि पण्डित जी उस वृक्ष का आद्योपांत वर्णन तत्कालीन रक्षा मंत्री प्रणव मुखर्जी को बता रहे थे. मंत्री जी को शायद हिंदी में परेशानी हो रही थी. इस लिये पण्डित जी धारा प्रवाह इंग्लिश में बोलते चले जा रहे थे. यही देख कर मुझे आश्चर्य हुआ कि पण्डित जी फ़ौजी है, या पण्डित है, या ज्योतिषी है, वैज्ञानिक है या कर्म कांडी है. फिर भी मै सिर झटक कर के उनकी कथा सुनने लगा.
भगवान ने जब पृथ्वी को अपने आप से, किसी चर्या विचलन के कारण दूर किया. तों पृथ्वी रोने लगी. बोली कि हे प्रभो! धरती पर जब घोर कलियुग आयेगा तब मैं उस पाप के बोझ को सह नहीं पाउंगी. भगवान ने बताया कि इसके लिये मै तुम्हें ढेर सारी नदियों के अलावा एक वृक्ष प्रदान कर रहा हूँ. नदियाँ तुम्हारे एक कोने से दूसरे कोने के पाप को ढोते एवं धोते हुए गन्दगी को ले जाकर समुद्र के हवाले कर देगीं. किन्तु उसके पहले ही यह वृक्ष अपने अचूक एवं अमर प्रभाव से तुम्हारी ढेर सारी गन्दगी बीच में ही समाप्त कर देगा. और तुम्हारा बोझ हल्का हो जाएगा.
कहावत के अनुसार यमुना जी भगवान सूर्य क़ी पुत्री है. सूर्य के पुत्र जो उनकी दूसरी पत्नी छाया से उत्पन्न हुए थे और जिनका नाम शनि है, यमुना उनकी बहन लगती है. इस प्रकार यमुना शनि एवं यमराज क़ी बहन हुई. इन दो प्रचंड एवं उग्र देवो क़ी बहन होने के कारण गंगाजी ने इन्हें अपने में मिलाने से इनकार कर दिया. तब भगवान ने यमुना क़ी धारा इस पवित्र वृक्ष के नीचे से गुजार दिया, यमुना इस वृक्ष के स्पर्श मात्र से पवित्र हो गयी. और तब गंगाजी ने इन्हें अपने में मिलने क़ी अनुमती दी. इस प्रकार यह अक्षय वट नदियों द्वारा बहा कर लाई गयी गन्दगी एवं पाप को अपने पास बीच में ही नष्ट कर देता है.
त्रेता युग में जब भगवान राम अपने माता-पिता के आदेशानुसार बनवास क़ी यात्रा पर थे. तब वह घूमते हुए प्रयाग आ रहे थे. भगवान राम भगवान सूर्य के वंश के थे. जब उनका बनवास हुआ तब उन्होंने अपने शिष्य हनुमान से कहा कि हे हनुमान मेरे कुल के एक व्यक्ति का बनवास हुआ है. तुम वन में उसकी देख भाल करना. अभी वह अयोध्या से गंगा पार कर के प्रयाग पहुँचने वाला है. अयोध्या से आने का एक ही रास्ता था. और वह पुरुरवा नगर जिसका वर्त्तमान में नाम झूंसी है, से होकर ही गुजरता है. इसलिए हनुमान जी झूंसी के निकट इस पार गंगाजी के तट पर ही भगवान राम क़ी प्रतीक्षा करने लगे.
पुरुरवा नगर के बारे में यह कहावत आती है कि यह वन भगवान शिव एवं पार्वती का विहार स्थल था. इसमें किसी का भी प्रवेश वर्जित था. अन्यथा इसमें प्रवेश करने पर उसका लिंग परिवर्तन हो जाएगा. यही कारण पडा कि गलती से चन्द्रमा के पुत्र बुध इस जंगल में प्रवेश कर गये. और लिंग परिवर्तन हो जाने के कारण भगवान शिव से उनके बारह पुत्र हुए. वे ही बारह महीने है जो चैत्र, वैशाख आदि से लेकर फाल्गुन तक माने जाते है. फिर जब बुध ने भगवान से प्रार्थना किये तब कुछ दिन बाद भगवान शिव ने उन्हें उस जंगल से बाहर निकाला. किन्तु तब तक बुध के पेट में एक और बच्चा आ चुका था. वही तेरहवां महीना अधिमास या मलमास के नाम से जाना जाता है जो प्रति बत्तीस महीने पर एक बार आता है.
भगवान राम विचार किये कि यदि पुरुरवा नगर से होकर जाना पड़ता है तों भगवान शिव क़ी मर्यादा के कारण स्त्री बनना पडेगा. यदि किसी तरह अपनी शक्ति के बल पर इस जंगल को लांघ कर मैं गंगा के उस पार जाता हूँ तों उस पार शिव-विष्णु क़ी समन्वित शक्ति के अवतार हनुमान मुझे लेकर सीधे दंदाकारान्य अपने स्वामी सुग्रीव के पास पहुँच जाएगा. और इस प्रकार रास्ते के अन्य उद्धार के काम बाधित हो जायेगें. इसलिए भगवान राम ने गंगाजी को पुरुरवा नगर (झूंसी) क़ी तरफ से गंगाजी को पार न कर के श्रिंगवेर पुर क़ी तरफ से पार किये. और हनुमान जी उनकी प्रतीक्षा गंगा के इस तट पर करते करते सो गये.
भगवान राम को बनवास के लिये आदेश था कि-
तापस वेश विशेष उदासू. चौदह वर्ष राम बनवासू.
अर्थात राम का वेश राजसी नहीं बल्कि तपस्वी का होगा. उसमें भी विशेष उदासी का रूप होगा. अर्थात न तों किसी गाँव में घुसेगें. न इनके पाँव में कोई खडाऊं होगा. और न ही एक जगह टिक कर रहेगें. उस समय प्रयाग का क्षेत्र आश्रम एवं गाँव का था. इधर भारद्वाज ऋषि ने जब सुना कि राम इस तरफ से प्रयाग में प्रवेश किये है तों वह अगवानी के लिये आये. तथा राम से बोले कि हे राम तुम गाँव में प्रवेश न करना. वैसे भी सभी डरते थे कि कही राम को शरण देने से कैकेयी नाराज हो जायेगी. तों राजा से कह कर उसे मरवा डालेगी. जो अपनी वाली चलाते हुए राजा को वशीभूत कर के उनके लाडले को वन भेजवा सकती है, वह भला दूसरे के लिये क्या बुरा नहीं करवा सकती है? इस लिये कोई नहीं चाहता था कि राम उसके यहाँ ठहरें. ऋषि भारद्वाज बोले कि हे राम तुम किसी गाँव में घुस नहीं सकते हो. किसी व्यक्ति के यहाँ टिक नहीं सकते हो. तों फिर क्या सोचे हो? राम चन्द्र जी ने पूछा कि आप ही कोई उपाय बताएं. तब भारद्वाज ऋषि ने बताया कि एक वृक्ष है, जहाँ पर ऋषि मुनि रहते है. चलो वही पर चलते है. सब लोग उस वृक्ष के नीची आये. भगवान राम ने उस वृक्ष से कहा कि हे वृक्ष हम रात को तुम्हारी छाया में रुकना चाहते है. क्या आप अनुमति देगें? अक्षयवट जी बोले कि मेरी छाया में तों रात दिन पता नहीं कितने लोग रात एवं दिन बिताते है. तपस्या करते रहते है. लेकिन कोई पहले मुझसे इस तरह अनुमति नहीं मांगता है. फिर आप ही क्यों अनुमति मांग रहे है? राम जी बोले कि कोई मुझे रात को अपने यहाँ टिकने नहीं देता है कि कही मेरी विमाता कैकेयी उसे ईर्ष्या वश मरवा न डालें. इसीलिए मुझे आप से पूछना पडा. अक्षयवट बोले कि हे राम! यदि किसी क़ी मुसीबत में सहायता देना एवं एवं शरण देना पाप है तों मैं यह पाप करने को तैयार हूँ. आप निश्चिंतता के साथ जब तक चाहें, रह सकते है. भगवान राम बोले कि हे वृक्ष यदि तुम जंगली होकर भी उसमें भी एक वृक्ष होकर इतनी ऊंची सोच रखते हो तों मै तुम्हें यह वरदान देता हूँ कि आज से तुम केवल वटवृक्ष नहीं बल्कि अक्षयवट कहलाओगे. और तब से यह अक्षयवट के नाम से प्रसिद्ध हुए. भगवान राम अपनी पत्नी जानकी एवं भाई लक्ष्मण के साथ अनेक ऋषि मुनियों के द्वारा वेद-पुराण एवं शास्त्र-उपनिषद की कथा सुनते हुए रात बिताये. और फिर यहाँ से चित्रकूट की तरफ प्रस्थान किये.
उस वृक्ष के नीचे उस समय कई दर्शनार्थी उपस्थित थे. सब लोग पंडित जी के मुख से यह विचित्र कथा बड़े ही मनोयोग से सुनते जा रहे थे. मै भी मंत्र मुग्ध होकर सुन रहा था.
राखल दास बनर्जी के नेतृत्व में जब पूरा तत्व विभाग ने इस वृक्ष का कार्बन एज निकालाना शुरू किया. सारे सुबूत जुटाए, परिक्षण किये तों पता चला कि यह वृक्ष कम से कम 3250 वर्ष ईशा पूर्व का तों है ही. उसके पीछे कब से खडा है, इसका पता नहीं चल पा रहा है. इस प्रकार इस वृक्ष क़ी उम्र कम से कम 6000 वर्ष से भी पुरानी है.
इस किले के अन्दर एक जगह पातालपुरी नाम से प्रसिद्द है. प्रसंगवश इसका वर्णन पहले दिया जा चुका है. यह स्थान सेना के आधिपत्य से अलग है. कुछ पंडितो के समूह ने यहाँ पर भी एक बरगद के वृक्ष को अपनी ठगी की दूकान चलाने के लिए अक्षयवट के नाम से प्रचारित कर रखा है. किन्तु यदि रासायनिक परीक्षण किया जाय तो सिद्ध हो जाएगा की इस डुप्लीकेट अक्षयवट से वह वायु या किरण नहीं प्रस्फुटित नहीं होती है जो ओरिजिनल अक्षयवट से निकलती है. किन्तु भोली भाली जनता को गुमराह कर पंडित लोग बड़े ही आराम से ठगी करते रहते है. चूंकि पण्डित जी इसका सुदृढ़ वैज्ञानिक आधार भी प्रस्तुत किये. कि किस कारण से यह वृक्ष अक्षय हो गया. इसके नीची क़ी तीसरी सतह किसी ज़टिल रासायनिक यौगिक पदार्थ पर टिका है जिससे निकलने वाला वह द्रव्य इसे नष्ट ही नहीं होने देता है. इसीलिए यह सदा ही हरा रहता है. इसके पत्ते कभी पीले नहीं पड़ते.
मै यहाँ आदरणीय गुरुदेव जी द्वारा प्रस्तुत किये गये वैज्ञानिक प्रमाणों को उन्हीं क़ी भाषा में प्रस्तुत नहीं कर पा रहा हूँ. कारण यह है कि मुझे विज्ञान का उतना ज्ञान नहीं है. फिर भी आधुनिक विज्ञान इसे मान चुका है कि इस वृक्ष का कभी विनाश नहीं होगा.
इसका प्रत्यक्ष उदाहरण यह है कि मुग़ल शासक औरंगजेब ने इसे नष्ट करवाने में एडी चोटी का जोर लगा दिया था. इसे कटवा दिया. फिर इसे जलवाया. इसकी जड़ो में तेज़ाब डलवा दिया. किन्तु फिर भी इस वरदानी वृक्ष का कुछ नहीं बिगड़ा है. औरंगजेब के इस कुकृत्य अर्थात जलवाने का सुबूत आज भी देखा जा सकता है. आज भी वह जला हुआ भाग ज्यो का त्यों उसी तरह पडा हुआ है. उसे आज भी देखा जा सकता है.
पण्डित जी मुझे लेकर उसके जले हुए भाग को भी दिखाए जो स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है.
हिन्दू तों हिन्दू, बौद्ध धर्मानुयायी चीनी पत्रकार ने अपने संस्मरण में लिखा है कि यह वटवृक्ष एक जंगली वृक्ष नहीं बल्कि एक अमोघ औषधि है. इसकी विचित्रता एवं परम अलौकिक शक्ति अवर्णनीय है. या दूसरे शब्दों में हिदुओ द्वारा पूजित यह वृक्ष ह़र धर्मानुयायिओं के लिये पूज्य एवं रक्षनीय है. यह चीनी यात्री इस वृक्ष के नीची बहुत दिन बिताये थे. उसने लिखा है की पता नहीं कितने लोग कितनी बार इसके दर्शन कर अपनी व्याधियो से मुक्त हुए है. वह लिखता है की कोई विशेषज्ञ ही बता सकता है की इस वृक्ष का कौन सा भाग किस विशेषता से भरा है. सामान्य पंडित या व्यक्ति कुछ नहीं बता सकता. कारण यह है की इतना दिन रहने के बाद भी मुझे इसका रहस्य ज्ञात नहीं हो सका. किन्तु यह अवश्य है की इसके किसी विशेष भाग में कोई अलौकिक शक्ति छिपी है.
मै बहुत देर तक वहां बैठा रहा. उसके बाद पण्डित जी उस वृक्ष के दक्षिणी किनारे पर लेकर गये. उन्होंने मुझे ऊपर देखने को कहा. उसके बाद उन्होंने कहा कि आँख बन्द कर लो. मैंने आँख बन्द कर लिया. उसके बाद पीछे वाले हिस्से में लेकर गये. वहां पर उन्होंने कहा कि दोनों हाथ से वहां पर तने के एक विशेष भाग को छूने को कहा. मेरे हाथ काँप रहे थे. फिर वह बड़ी देर तक उस वृक्ष के किसी भाग को ढूँढते रहे. एक जटा निकली हुई थी. उन्होंने उसे दोनों हाथो से पकड़ने को कहा. मैंने पकड़ा. मै फिर काँप गया. मुझे चक्कर आने लगा था. मै ज़मीन पर वही लेट गया. फिर जब कुछ स्वस्थ हुआ तों उठा. उस वृक्ष को प्रणाम किया. और प्रदक्षिणा पूरी करने के बाद सामने आकर दरी पर बैठा. वहां पर उन्होंने कुछ करने क़ी विधि बतायी. मैंने उसे बड़े ही मनोयोग से सुना. कुछ सामग्री खरीदनी थी. मै दर्शन करने के बाद लौट कर बाज़ार से सारा सामान खरीदा . पण्डित जी ने एक पूजा कराई. एक यंत्र उन्होंने बनाया. और मुझे दिया. बोले कि यह कोई जादू टोना नहीं बल्कि एक एलोपैथिक औषधि ही समझ लो. किन्तु इसे खाना नहीं है. नब्बे दिन बाद यदि हो सके तों फिर इस वृक्ष के पास आकर आधा घंटे बैठ जाना. सब कुछ ठीक हो जाएगा. हम अक्षय वट से बाहर निकले. पण्डित जी के आवास पर पहुंचे.
इसके बाद क़ी घटना का विवरण मै अपने पिछले ब्लॉग “जागरण जंक्शन का वरदान-मेरा पुनर्जीवन” में दे चुका हूँ.
भारती

Read Comments

    Post a comment