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जागरण जंक्शन का वरदान-मेरा पुनर्जीवन

संसद या सासत
संसद या सासत
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कहते है, वक़्त से पहले और किस्मत से ज्यादा किसी को कुछ भी नहीं मिल पाता है. मैं एक लम्बे अरसे के बाद पुनः इस मंच पर आया हूँ. एक लम्बी और कठिन व्याधि से निजात पाने के बाद आज कुछ लिखने बैठा हूँ.
सबसे पहले तो मैं इस जागरण मंच का ह्रदय से आभार व्यक्त करना चाहूंगा जिसके कारण मुझे अपनी दीर्घ कालिक जीर्ण व्याधि से निजात पाने के लिए एक उचित, ठोस एवं विश्वसनीय मार्ग मिला. या दूसरे शब्दों में जीवित बचा हूँ. और उसके बाद मैं आदरणीय पंडित आर. के. राय का चिर ऋणी रहूँगा. जिनके अद्वितीय ज्योतिष ज्ञान एवं निःस्पृह सार्थक सेवा भाव से मुझे पुनर्जीवन मिला है.
मैं सत्य कहूं, मै अब अपने जीवन से हार गया था. क्योकि अपनी क्षमता के मुताबिक कोई भी डाक्टर एवं अस्पताल इलाज़ के लिए नहीं छोड़ा. किन्तु कहने से क्या फ़ायदा क़ि मै कितना गंवाया? क़ि अचानक इस जागरण मंच पर मै कुछ रचनाएँ या ज्योतिषीय लेख पूज्य पाद पंडित आर. के. राय का पढ़ा. वैसे तो मै अब बिलकुल थक चुका था. हर तरफ से निराश एवं हताश हो चुका था. मुझे थोड़ी झिझक हो रही है क़ि मै अपने स्वास्थय लाभ के लिए बड़े बड़े डाक्टरों के पास जाने के अलावा और क्या क्या किया. किन्तु मैं अब अंतिम कोशिस के रूप में इस परम श्रद्धेय पंडित अर. के. राय को भी आज़माने की इच्छा नहीं छोड़ सका. मरता क्या न करता? बहुत ज्यादा ज्योतिष पर तो विश्वास नहीं था. किन्तु मैंने इसे आज़माने में कोई बुराई नहीं समझा. क्योकि मै तो इससे भी बहुत घृणित उपाय आज़मा चुका था.
मुझे दो एक महानुभावो ने यद्यपि इनके बारे में बताया था. किन्तु पता नहीं क्यों मुझे इस ज्योतिष आदि पर विश्वास टिक नहीं पा रहा था. फिर भी दिल के एक कोने से आवाज़ निकली क़ि चलते चलते क्यों न इन्हें भी देख लिया जाय. और फिर मै इनकी शरण में पहुंचा.
इनके यहाँ पहुँचना भी बहुत टेढ़ी खीर है. एक बार तो आदमी इनके गेट तक जाकर भी डर एवं परेशानी के चलते वापस हो जाएगा. किन्तु मै एक पीड़ित था. मेरी उस भयंकर पीड़ा के आगे उनके यहाँ पहुँचने की परेशानी बहुत छोटी लगी. और मैं अनेक चेकिंग और पूछ ताछ से गुजरते उनके यहाँ पहुँच गया.
मैंने सोचा था, यह बहुत बड़े आदमी होंगें. इनका एक भव्य आफिस होगा. कुछ नौकर चाकर होगें. कुछ देर तक दरवाजे के बाहर बैठकर प्रतीक्षा करनी पड़ेगी. फिर मेरा नंबर आयेगा. जैसा क़ि मै पहले ही बहुत भुगत चुका था. फिर भी मुझे यह सब परेशानी बहुत छोटी लग रही थी.
मै इनके सरकारी आवास पर पहुंचा. बहुत ही साधारण आवास. अंग्रेजो के ज़माने का बना पुराना घर. दरवाजे पर ही बाहर पंडित जी का नेम प्लेट लगा था. यद्यपि काल बेल लगी थी. किन्तु मैंने ध्यान नहीं दिया. मैंने दरवाजे को नाक किया. पंडित जी बाहर आये. मै उन्हें पहचान गया. क्योकि उनके ब्लॉग पर उनका फोटो देख चुका था. मैंने उनके पाँव छुए. फिर अन्दर गया. पांच सात ईजी चेयर, एक लकड़ी का तख्ता, और फिर पंडित जी की लाइब्रेरी. मै झिझक रहा था. उन्होंने मेरी बांह पकड़ कर चेयर पर बिठाया. मै बैठा. अन्दर से आदरणीया देवी स्वरूपा गुरुमाता आयीं. मैंने उन्हें देवी कहकर उनको बहुत छोटा कर दिया है. क्योकि जो उन्हें देखा होगा या देखेगा वह मुझे अवश्य कहेगा क़ि वास्तव में मैंने उन्हें मात्र देवी कहकर उनका क़द छोटा कर दिया है. उन्होंने तत्काल बिस्कुट एवं पानी प्रस्तुत किया. किन्तु पंडित जी थोड़ा नाराज हुए. उन्होंने मुझे इशारा किया. मै समझ गया. मैंने जूता एवं जुराब खोला. थोड़ी दूरी पर चप्पलें पडी हुई थीं. उनके इशारे के अनुसार मैंने चप्पलें पहनी. पंडित जी मुझे बाथरूम ले गए. कडाके की ठण्ड पड़ रही थी. अपनी अस्वस्थता को ध्यान में रखते हुए मुझे ठण्ड से बचना था. किन्तु मै कुछ कह नहीं पा रहा था. उनके पीछे पीछे गया. किन्तु जब मैं हाथ पाँव धोने लगा. तो पता चला क़ि पानी गर्म है. उस पुराने घर में मुझे गीजर की संभावना दूर दूर तक नज़र नहीं आ रही थी. मुझे नहीं मालूम, वह गीज़र उनका अपना था या सरकारी. मै हाथ पाँव धोकर वापस आया. उसके बाद फिर उनके साथ चाय पीया. चूंकि मै बहुत सुबह ही उनके यहाँ पहुँच गया था. मुझे डर था क़ि कही मेरा नंबर बहुत पीछे न पड़ जाय. इसलिए तड़के ही पहुँचने का निर्णय लेकर चल पडा था. ट्रेन में भी रात को भोजन नहीं मिला था. अतः मै बिस्कुट चाय इत्यादि लेता गया. मैं बहुत हैरान था क़ि उन्होंने यह नहीं पूछा क़ि मै कहाँ से आया हूँ या किस काम से आया हूँ. कुछ नहीं. सीधे आव भगत. चाय ख़तम किया तब तक पता नहीं और क्या चीज़ था, शायद किसी चीज का सूप या क्या था, मुझे पता नहीं चला. गर्म था. जाड़े का मौसम था. मै पंडित जी की तरफ देखा. उन्होंने इशारा किया. हम दोनों उसे पीने लगे. जब पीनी समाप्त हुआ. तो उन्होंने नहा लेने का इशारा किया. क्योकि मुझे पता था क़ि वह एक फौजी भी है. इसलिए मुझे कुछ और भी भय था. मैंने आव देखा न ताव. मैंने बैग खोला और तौलिया आदि निकाल कर नहाने चला गया. पानी गर्म था. इसलिए कोई परेशानी नहीं हुई. नहा कर आया. तब तक उस पहले रूम में रीवोल्विंग रूम हीटर गुरुवानी घसीट कर ला चुकी थीं. और चटपट नाश्ता किया. अब मै नाश्ते का मीनू यहाँ नहीं बताना चाहता. इतना अवश्य कहूंगा क़ि जो भी था उसमें कही कोई भी चीज आधुनिक नहीं था.
और तब उन्होंने पूछना शुरू किया क़ि मैं कहाँ से आया. किसलिए आया. मै कुछ आश्चर्य चकित था. खाना पीना खिलाकर यह सब बात पूछने का तुक मेरी समझ में नहीं आ रहा था. संभवतः मेरी वेश-भूषा देख कर वह समझ गए थे. मैं रात भर सोया नहीं था. तथा कही दूर से आ रहा था. और मैंने उन्हें अपनी गाथा बतायी. वास्तव में मुझे ड्यूओडिनल कैंसर था. तथा डायाफ्राम राईट अंगिल डैमेंज्द था. मै पिछले आठ वर्षो से दवा करा कर थक गया था. जैसा क़ि मै पहले ही बता चुका हूँ, मैंने अपनी क्षमता के अनुरूप कोई भी बड़े से बड़ा चिकित्सालय दवा के लिए नहीं छोड़ा था. बस दस दिन तक राहत रही. उसके बाद दोगुने वेग से फिर वही दर्द. पंडित जी एवं उनकी श्रीमती जी बड़े मनोयोग से सुनते रहे. उसके बाद वह उनके घर के सामने ही स्थित अतिथि शाला में मुझे ले गए. मुझे उन्होंने वहां आराम करने के लिए कहा. तथा स्वयं आफिस चले गए.
मै रजाई ओढ़ कर लेट गया. तभी खिड़की से देखा क़ि चार आदमी और एक बुज़ुर्ग महिला उनका दरवाज़ा खटखटा रहे है. गुरुवानी ने दरवाजा खोला. उसके बाद उन्हें अन्दर ले गयीं. अब उसके बाद मुझे कुछ दिखाई नहीं दिया. मैं लेटे लेटे यही सोच रहा था क़ि क्या ऐसे ही लोग इनके यहाँ आते रहते है.? क्या सबकी आव भगत इसी तरह यह करते रहते है?
एक बात मेरे मन में और भी कौंध रही थी. मैं सोच रहा था क़ि जब इतने बड़े बड़े डाक्टर एवं पंडित थक गए तो यह इतने साधारण से दिखने वाले इस महाशय के द्वारा किसी सफलता की उम्मीद की जा सकती है? मैं इसी ऊहा पोह में पडा हुआ था. और अब धीरे धीरे निराशा एवं हताशा भी मेरे अन्दर भरती चली जा रही थी. अभी मैं पछता रहा था क़ि मै क्यों चला आया? मैंने अपनी निर्बुद्धि के कारण और निरर्थक लोभ में इस साधारण से फौजी पंडित के यहाँ चला आया. मुझे अब शीघ्र ही यहाँ से चला जाना चाहिए. वैसे मेरी ट्रेन में अभी बहुत विलम्ब था. लेकिन पता नहीं क्यों मुझे ऊब सी महसूस होने लगी. तभी लग भाग एक घंटे बाद पंडित जी घर पधारे. अन्दर जाने से पहले उन्होंने मुझे भी अतिथि शाला से घर में ही बुला लिया. अन्दर पांच अतिथि, एक गुरुवानी पहले से ही बैठे हुए थे. वे अतिथि पंडित जी के पूर्व परिचित थे. उनमें से महिला जो थीं, वह स्थानीय किसी कालेज में पढ़ाती थीं. मर्दों में से एक महाशय डीआरडीओ में वरिष्ठ इंजीनियर थे. दूसरे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता थे. तीसरे सेवा निवृत्त मुख्य जिला चिकित्साधिकारी थे. जो उस अध्यापिका महिला के पति थे. तथा चौथे महाशय शैक्षिक अनुसंधान परिषद् मध्य प्रदेश के उपाध्यक्ष डाक्टर के. एन द्विवेदी थे. जिनको संभवतः आज बहुत लोग जानते है. और अपनी निष्पक्षता के लिए समाचार पत्र की सुर्ख़ियों में रहे है.
अभी मै इतने संभ्रांत लोगो के मध्य बैठा था. ये लोग अपनी किसी समस्या के दूर हो जाने पर पंडित जी के पास शायद कुछ उपहार लेकर आये थे. मैं समस्या नहीं जान सका. क्योकि वे लोग बहुत शीघ्र चाय आदि पीकर वापस चले गए. किन्तु उनकी बातो से और उनके द्वारा दिए जाने वाले सम्मान से यह स्वतः ही स्पष्ट हो गया क़ि निश्चित रूप से किसी कठिन समस्या का समाधान हुआ है. और अब मुझे लगा क़ि मै बिलकुल सही जगह पर आया हूँ. उनके जाने बाद पंडित जी मुझे लेकर जगत्प्रसिद्ध परम पवित्र पौराणिक अक्षयवट का दर्शन कराने लेकर चले. मै इस अति प्राचीन अलौकिक वृक्ष का दर्शन कर धन्य हो गया. मै किसी अलग ब्लॉग में इसका वर्णन दूंगा. वापस आकर खाना खाए. धीरे धीरे मेरी ट्रेन का भी समय हो चला था. मैंने फिर पंडित जी से अपनी समस्या का ज़िक्र किया. और तब तक गुरुवानी जी चाय लेकर आ चुकी थीं. पंडित जी ने पहले मेरी स्थिति, व्यवसाय, पारिवारिक विवरण आदि के बारे में जानकारी माँगा. मै उनके इस प्रश्न का अपनी समस्या से कोई सम्बन्ध नहीं समझा. किन्तु फिर भी मैंने बताया. मैंने भी उनसे इन प्रश्नों के पूछने का कारण पूछा.
पंडित जी ने बताया क़ि यदि आप आर्थिक रूप से कमजोर होते तो मैं यही कहता क़ि आप घर जाएँ और भगवान की पूजा पाठ करते रहें. भगवान सब अच्छा करेगें. क्योकि इसमें बहुत ज्यादा पैसा खर्च होगा. मैं बिलकुल नहीं सहमा. मैंने पंडित जी से सब बात बता दी. पंडित जी ने कुछ सामग्री लिखी. एक चमकते शीशे का कुछ प्रिज्म सा जो तुरंत खरीद कर लाये थे, उसे कागज़ से खोल कर दिया. तथा मुझे विधि बतायी. और एक सप्ताह बाद फोन करने को कहा. और फिर झटके में बिदा कर दिए. बिलकुल फौजी तरीके से उन्होंने हाथ जोड़ कर घर के बाहर मेरा थैला पकड़ा दिया. और बिलकुल अपनी मोपेड पर सवार होकर चल दिए. मुझे इतना भी मौक़ा नहीं दिए क़ि मै उनका या गुरुवानी जी का पैर छू सकूं. मै हत प्रभ रह गया. मुझे बहुत देर तक पता नहीं चला क़ि मै क्या करूँ. तभी एक मोटर साईकिल सवार वहां आया. मुझे पीछे बैठने को कहा. मै बिना सोचे समझे उसके पीछे बैठ गया. उसने मुझे रेलवे स्टेशन तक छोड़ दिया.
मै स्टेशन के प्लेट फ़ार्म पर पहुंचा. ट्रेन आने में अभी बहुत देर थी. मै अपने आप पर हंस रहा था. सोच रहा था क़ि मै पंडित जी से कोई जडी-बूटी, भष्म, यंत्र-मन्त्र आदि कुछ लेकर आउंगा. उसका प्रयोग करूंगा. हो सकता है, कुछ राहत मिल जाय. यहाँ तो बिलकुल उलटा हुआ. मै अपनी बेवकूफी पर बहुत देर तक मुस्कराता रहा. घूमता टहलता रहा. अनन्या एक्सप्रेस आयी. मै अपने डिब्बे में घुसा. और हल्ला, शोर-गुल में घुल मिल गया.
अगले दिन शाम को मै घर पहुंचा. मै अपनी धर्म पत्नी से सब बातें बताईं. उन्होंने पंडित जी कही बातो को आज़माने में कोई बुराई नहीं समझी. मैंने उस शीशे के प्रिज्म को अपने देव स्थान पर रखा. नहा धोकर उनकी बतायी विधि से सामग्री को तैयार कर के पेट पर पोटली बाँध लिया. तथा सोते समय उस पोटली पर भोज पत्र के ऊपर उस शीशे के प्रिज्म को रख कर बाँध लिया. तथा सो गया.
आप सत्य मानिए, पूरे सात साल बाद मुझे वैसी नींद लगी थी. मुझे तभी विश्वास हो गया क़ि शायद मेरे दुःख दूर होगें. अब मैं और भी श्रद्धा से उस प्रयोग को करना शुरू किया. अगले सप्ताह से मैं अब कुर्सी पर बैठने लगा. आफिस के लोग कुछ खुश, कुछ चकित और कुछ संतुष्ट नज़र आ रहे थे. मै उस दिन कुछ एक आवश्यक फाईलो का निपटारा किया. और ज़ल्दी ही थक जाने के कारण घर वापस आ गया. मुझे एक अनापेक्षित खुशी का अहसास हो रहा था.
अचानक एक दिन रात को फिर दुबारा दर्द शुरू हुआ. इतना तेज़ दर्द शुरू हुआ क़ि मेरे मन में ऐसा महसूस हुआ क़ि अब मैं मर जाउंगा. मेरी माँ एवं पत्नी सभी रोने लगे. आकस्मिक दर्द के लिए डाक्टर ने एक टिकिया दे रखी थी. मेरी पत्नी ने वह टिकिया मुझे पानी के सहारे दी. आधे घंटे बाद दर्द कुछ कम हुआ. और मै अब पंडित जी के नुस्खे से निराश हो गया. मैंने सोचा क़ि अब किसी पंडित या डाक्टर का सहारा नहीं लूंगा. अब तो मर ही जाना है. धीरे धीरे मुझे नींद आने लगी. और मै सो गया. रात के लगभग दो बजे के आस पास नींद खुली. मेरी पत्नी जग रही थी. उसने कहा क़ि आखिर पंडित जी के नुस्खे को क्यों नहीं किया जाय? उसमें क्या बिगड़ता है. पंडित जी के बताये पुरे विधान को कर देते है. और उस आधी रात को मेरी पत्नी ने फिर मेरे पेट पर वह पोटली बाँध कर उस पर वह प्रिज्म रख दिया. और फिर यह प्रक्रिया चालू रही. उसके बाद मुझे आदत सी पड़ गयी. एक महीने बाद मुझे लगा क़ि मैं बिलकुल ही ठीक हूँ. तब मुझे याद आया क़ि पंडित जी को सूचना भी देनी है. मैंने बहुत कोशिस की क़ि पंडित जी से फोन पर बात हो जाए. किन्तु बात नहीं हो पायी.
मैंने सारे मेडिकल टेस्ट करा लिए है. आज लगभग पांच महीने बीत भी गए है. पुराने डाक्टर भौंचक्के है क़ि यह जो कुछ भी हुआ है वह आश्चर्य हुआ है. और यह किसी बड़े चमत्कार से कम नहीं हुआ है. मैंने पूरा एम्आरआई.करा लिया है. अभी मेरे अन्दर कोई बीमारी नहीं है. मै बहुत ही अच्छी तरह से काम कर सकता हूँ.
पंडित जी का शायद फोन नंबर बदल गया है. इसलिए बात नहीं हो पा रही है.
अभी 27 मई को जब मैं वैष्णो देवी से दर्शन कर के लौट रहा था तो पंडित जी अम्बाला में मिल गए.
और मुझे उस भरी भीड़ में भी अपने आफिस के मातहतो के सामने भी उनके चरणों में लोट जाने से कोई झिझक नहीं बल्कि एक गर्व भरी खुशी ही हुई. हम चौदह आदमी थे. हम ने बहुत विनय कर के उनकी वह ट्रेन छुड़वा दी. चूंकि उनको भी दिल्ली ही जाना था. हम भी दिल्ली होकर ही जा रहे थे. हम बहुत आग्रह कर के उनकी वह टाटामूरी एक्सप्रेस छुड़वा दिए. तथा उत्तर सम्पर्क क्रान्ति में उन्हे वेटिंग का टिकट लेकर दिल्ली तक आये.
हम ट्रेन में उनका क्या स्वागत या आव भगत करेगें? ट्रेन में वह खाना खायेगे नहीं. पानी पियेगे नहीं. चाय पियेगे नहीं. हमें बड़ी निराशा हुई. किन्तु हम सब बहुत खुश थे.
मैंने पंडित जी से सब बातें बताया. मैंने यह भी बताया क़ि कैसे मै निराश हो गया था. पंडित जी ने बताया क़ि मन्त्र या पूजा पाठ का फल थोड़ा विलम्ब से मिलता है. अतः यह सब करते समय थोड़ा धैर्य धारण करना चाहिए. रास्ते भर उन्होंने बड़ी अच्छे एवं विचित्र वृत्तांत सुनाये.
चूंकि यह लेख इस मंच के ही एक लेखक की प्रशंसा से भरा है. और पूरी तरह से चारण गान है. अतः हो सकता है किसी को या बहुत भाई लोगो को रास न आये.
किन्तु चूंकि मै भुक्त भोगी हूँ. इसलिए मै इस चारण गान ही सही, उनकी आरती प्रार्थना करूंगा ही. भले लोगो को अटपटा लगेगा.
मै बहुत दिनों तक इस मंच से अलग रहा हूँ. और बहुत ही खुशी लेकर वापस आया हूँ. अब यह खुशी बनी रहे, इसके लिए आप लोगो का स्नेह चाहिए.
मै अपने अगले लेख में आप लोगो को अतिपवित्र अक्षयवट का दर्शन कराउंगा.
तब तक के लिए नमस्कार.

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